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हलक में हाथ डाल , हमारे भीतर के जंगल को बाहर लाती है 1979 की क्लासिक Apocalypse Now!

 – प्रखर विहान

बैकग्राउंड में जिम माँरेसन सधी आवाज में गा रहे हैं, this is the end.. all things we understand.. the end । गाने की ताल पर हजारों जंगी हवाई जहाजों का जत्था आगे बढ़ रहा है । असंख्य बुलट बैरल्स , आधुनिक जहाजों  की गडगडाहट और यहाँ वहां बेतरतीब  बिखरा खून सब मिल, धीरे धीरे  हमारी आधुनिकता और हमारे अंत को हमजोली बना रहें हैं ।  पहला ही  शॉट हमारी नैतिकता और हमारे यथार्थ के बीच एक दायरा खींच देता है जहाँ मार्टिन शीन एक उबासी भरे कमरे में बिना कपड़ों के नाच रहे हैं और शीशे पर हाथ लगने की वजह से निकल रहे खून को अपने शरीर पर यहाँ वहाँ लगा रहे हैं ।

फिल्म देखते देखते कई बार आखे बंद सी होने लगती हैं,  किताबें जो पढ़ीं हैं बुजुर्गों की  सब पर शक  होता है । खून, मौत और दर्द का नशा सोचे समझे गए तमाम सामाजिक संस्कारों पर एक धारदार चाक़ू से  प्रश्न चिन्ह उकेरता है कई बार …….। फिल्म वियतनाम युद्ध की सत्य घटना पर आधारित है और सेना से विद्रोह कर चुके कर्नल कर्टज (मर्लिन ब्रेनडो)  की खोज के इर्द गिर्द बुनी गई है। अमेरिकी सेना इस खोज का जिम्मा कैप्टन बैंजामिन विल्यार्ड (मार्टिन शीन) को सौपती  है । फिल्म यथार्थवादी होते हुए भी वेतनाम युद्ध में घटी घटनाओं का  डोकुमेंटेशन नहीं है। पूरी कहानी कभी भी व्यक्ति और उसके चेतन की परिधि को छोड़ राजनैतिक नहीं होती।

फिल्म में एक अजीब सी उथल पुथल है। कहीं कुछ भी सिमिट्री में नहीं जैसे  ..एक द्रश्य में अमेरिकी जर्नल कन्धों पर सितारे लगाए पंक्ति में खड़े अपने तरुण कैडेट्स को बता रहा है की ‘बारूद और खून से मिली गंध जीत की गंध होती है’ यक-ब-यक कैमरा  कर्नल कर्टज के पास  पहुच जाता है और फिर  पेड़ो पर लाशें लटकी हुई दिखाई देने लगते हैं । कहीं पर हड्डियों के ढेर पड़े हैं कहीं पर सड़े हुए मांस पर मक्खियों के झुण्ड भिनभिना रहे हैं। कर्नल कर्टज ने कम्बोडिया के जंगलों में अपना अलग साम्राज्य बना लिया है जहां उसने तमाम वीरता पुरुस्कारों , विजय दिवस , वैचारिक क्रन्तिकारी , सभ्यतानुमा बहानों से परे जा हिंसा को उसके असली स्वरुप स्वरुप में स्थापित किया है । हर सीन के साथ साथ एक समान्तर कहानी चलती है और फिल्म के किरदार धीरे धीरे हिंसा को उसके नंगे स्वरुप में स्वीकार करते जाते हैं।

Apocalypse Now  थोड़ी देर के लिए भी उपदेशात्मक नहीं होती। आपको हर एक  द्रश्य के सत्य तक खुद पहुचना होता है ।है । कर्नल कर्टज, यह जानते हुए भी की कैप्टन बैंजामिन विल्यार्ड उसको मारने के लिए उसके पास आया है, उसे नुकसान नहीं पहुचाता। वह कैप्टन बैंजामिन विल्यार्ड में खुद के व्यक्तित्व को पुनर्जीवित करने की संभावनाए तलाशता है। कैप्टन विल्यार्ड के अवचेतन पर हिंसा को एक नए सिरे से रचता है और फिर कैप्टन विल्यार्ड को मौका देता है। खुद की हत्या करने का,  स्क्रीन पर आप कर्नल कर्टज की उपस्थित और उसकी भयावकता  को साफ़ महसूस  कर सकते हैं। एक शरीर के रूप में कैप्टन विल्यार्ड , कर्नल कर्टज को मार देता है लेकिन कर्नल कर्टज का वैचारिक हिंसात्मक व्यक्तित्व जाने-अनजाने कैप्टन विल्यार्ड में पैठ कर जाता है।

अंतिम द्रश्य में एक भैस को  वीभत्स तरीके से काटते हुए को भी सब अति सामान्य सा दिखाया गया है। कैप्टन विल्यार्ड को वह हिंसक वातावरण ठीक वैसे ही स्वीकार कर लेता है जैसे कर्नल कर्टेज को किया था कभी। फिल्म के करेक्टर्स जैसे जैसे अपने पूर्ण स्वरूप में आते हैं, हमें अपना यथार्थ झूठ सा लगने लगता है और इस झूठ की तीव्रता बढती जाती है। कहानी के साथ साथ  एक सत्रह साल का बच्चा, जिसे वीडियो गेम्स खेलना पसंद हैं, किस तरह से सेना में सम्मिलित हो जाता है और कई सौ लोगो का क़त्ल करने के बाद अपने व्यक्तित्व में एक अलग शक्तिबोध अस्तित्व पाता है । अपनी नवजात बच्ची की तस्वीर सीने से लगाए रखने वाला एक स्टीरियोटाइप पिता किस तरह से एक नन्हे पिल्ले पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाता है और पूरी फिल्म में  अपराधबोध विहीन चरित्र  बना रहता है ।

फिल्म का हर एक कोना जैसे चुपके से हमारे कान में कह रहा हो की  ”हमें पता है हम वही हैं जो  जंगल में रहता थे  कभी  और जिसकी हिंसा इमानदार थी जो खून बहाता था मांस के लिए अंतरिम शक्ति के लिए , प्रथम विश्व युद्ध से लेकर वियतनाम, कोरिया , इरान , चाइना सब जगह हमने भी ऐसा ही किया है पर सभ्यता के शहरीकरण के साथ साथ हम खुद की पश्विक आइडेंटिटी से बेमानी कर रहे हैं। हमने अपनी हिंसा को सभ्यता की डोर से बंधे हुए तर्कों से समझने की कोशिश की है।”

मानव प्रजाति के लिए इस से बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण मजाक और क्या हो सकता है की आधुनिक समय में सबसे ज्यादा लाशें ‘दूरगामी शांति’ को पाने के लिए गिराई गयीं हैं ।

क्या जरुरी है की कहानी कहने का प्रचलित सामान्य तरीका ही कथ्य को ठीक ढंग से संप्रेषित कर पाए ?  शायद  प्रचलित सामान्य कहानीयों के लिए ऐसा हो भी लेकिन डायरेक्टर Francis Ford Coppola ने यह फिल्म कम्बोडिया के वर्षावनों में रची है। यहाँ बहुत उमस है और यह उमस कहानी के चरित्रों में , सेट्स पर , सिनेमाटोग्राफी में , संगीत में साफ़ महसूस की जा सकती है। यह सब एक साथ आकर हर द्रश्य के साथ कई अनसुलझे प्रश्न देती चले जाते हैं । किसी , a.c रूम में बैठ कर आप इन प्रश्नों की उमस तक नहीं पहुच पाएंगे फिल्म के यथार्थ तक पहुचने के लिए आपको किसी कम्बोडिया, दांतेवाड़ा या बस्तर और किसी सभ्यतानुमा राष्ट्र के बीच  विकासशील शांतिपूर्ण समझौतों की खुनी कश्म्कास के चक्र को समझना होगा। ..Francis Ford Coppola ने  अपनी फिल्म में बखूबी किया है । बेहद संवेदनशील राजनैतिक विषय को एक व्यक्तित्व के ट्रांजेक्शन के द्वारा समझाने में  Apocalypse Now जैसे उदाहरण सिनेमा में कम ही हैं ।

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